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भाग १ - क्या खेल कूद से सदभाव मुमकिन है?

Writer's picture: SamantaSamanta

Updated: Dec 15, 2019

जात और धर्म के नाम पर बटे समाज में शिक्षा, शिक्षक, स्कूल और बच्चों के ऊपर काफ़ी दबाव होता है। एक तरफ़ शिक्षा का ये फ़र्ज़ होता है की वो बच्चों को पूर्ण रूप से एक आज़ाद और खुली सोच दे तो दूसरी और समाज से सीख लेने वाली बातें बच्चों के अंदर विपरीथ विचारधारा का निर्माण करती है। समानता को शुरू करते समय हम लोग अक्सर ये चर्चा करते थे की क्या शिक्षा समावेशि हो सकती है? ख़ास कर उन क्षेत्रों में जहाँ पर धर्म और जाती से उत्पन कठिन परिस्थितियाँ हो। समानता ने हमेशा इस विषय पर गहन विचार किया है की कैसे बच्चों के अंदर बचपन से इन परिस्थितियों से लड़ने एवं स्वतंत्र विचारों के निर्माण हो सके। इसी सोच को लेकर समानता ने अपने कार्य शेत्र में कुछ प्रयास किए है।


शुरुआत के वो दिन!

विकाश (नाम बदल कर) : अर्रे यह तो जंगली है। हम ना बैठेंगे इनके साथ।

धर्म (नाम बदल कर) : गुज्जर है ये तो, इनके साथ हम नहीं खाएँगे।

कर्मा (नाम बदल कर) : हमें तो अलग से खेल खिलाइयो, नहीं खेलेंगे इन गुज्जरो के साथ।

अध्यापक : इन लोगों में फ़र्क़ है जी।

सर्वेश (नाम बदल कर) : हम नहीं खाएँगे स्कूल का खाना।


जब हम लोगों ने वन वासियों के बच्चों की शिक्षा पर कार्य शुरू किया उन दिनों वहाँ के एक वन विद्यालय में हमें इस तरह की बातों का सामना करना पड़ता था। एक समुदाय के बच्चे दूसरे समुदाय के बच्चों के प्रति नानाप्रकार की बातें किया करते थे। ये सब बातें तथ्य विहीन थी। लेकिन इनको बोलते समय बच्चों के हाव भाव देखने वाले होते थे। टौंग्या और वन गुज्जर समाज के बच्चों के बीच में एक अजीब सी खायी थी। जब रोज़ स्कूल में हम दोनो समाज के बच्चों के बीच की दूरियों को देखते थे तो काफ़ी विचलित हो जाते थे। बच्चे कक्षा में एक साथ नहीं बैठते थे, एक दूसरे के साथ नहीं खेले थे, खाना भी नहीं खाते थे और एक दूसरे से छोटी छोटी बात पर काफ़ी हिंसक हो जाते थे। हम इस सब से काफ़ी झूझ रहे थे। हमें इसका भली भाँति आभास था की समाज में पक्की उम्र के लोगों की सोच इन नन्हें मासूमों में कैसे घर कर गयी थी। वो जो बोले रहे थे उसका मतलब नहीं जानते थे लेकिन उसको बोल रहे थे।


समानता की पहल!

समानता ने काफ़ी दिनों तक इस पर चर्चा की और फिर एक कार्ययोजना का निर्माण किया। इसके तहत सबसे पहले हमने कुछ दिनों तक माता पिता, भाई बहन, बच्चों और अध्यापकों के साथ इस विषय में चर्चा की और ये समझने की कोशिश की इस सबके के पीछे का इतिहास, भाव और कारण क्या है। इस सब से मिलने वाली इन्फ़र्मेशन को हमने समानता की टीम के सामने रखा और विचार विमर्श किया। इसके बाद हमने एक सुनियोजित तरीक़े से बच्चों, शिक्षकों एवं स्कूल के साथ जुड़े लोगों के साथ कार्य करना शुरू किया।

बच्चों के साथ हम लोगों ने कक्षा के अंदर और बाहर अलग अलग रूप से काम किया। कक्षा के अंदर हमने बच्चों को कहानियों, कवितयों और अभिनय करने के माध्यम से मिल कर रहना, एक दूसरे की कला, एक जैसे पर्यावरण (जिसमें की जंगल, ज़मीन और जानवरों से जुड़ी बातों) आदि के बारे में चर्चा कर जोड़ने का प्रयास किया। कक्षा के बाहर हमने खेल को माध्यम बनाया। हमने फ़ुट्बॉल, डाज बॉल और डिस्कस थ्रो जैसे खेलों को बच्चों के बीच में धीरे धीरे बढ़ावा दिया। हमने उन्हें - १) टीम का महत्व २) अच्छे खिलाड़ी की पहचान ३) एक जुट होकर खेलना ४) आपस में खेलने के लिए मिलकर स्ट्रैटेजी बनाना ५) एक दूसरे को नाम से बुलाना ६) लड़का लड़की को खिलाड़ी की नज़र से देखना - जैसी बातों से खेलते हुए अवगत कराया। ४ महीनों के परिश्रम के बाद हमने बच्चों में छोटे छोटे बदलावों को महसूस किया और चिन्हित किया।


खेल का महत्व - समानता की डगर

हमने ये देखा की बच्चों में खेल को लेकर एक रोचक परवित्रि होती है। उनके अंदर जो ऊर्जा है उसका खेल बहुत अच्छे तरीक़े से इस्तेमाल करता है। शुरू शुरू में हमने बच्चों में ग़ुस्सा, साथ ना खेलना, लड़ाई आदि जैसे भाव देखे। इस दोरान हम लोगों ने बच्चों के साथ लगातार चर्चा, खेल पे उसके असर, अपने ग़ुस्से की ऊर्जा को खेल में झोंकना, एक दूसरे की ताक़त की पहचान करना, खेलों के नियम का पालन करना, टीम स्पिरिट और जीतने के लिए मिल कर सोचने जैसी बातों पे ज़ोर दिया। हमने ये देखा की धीरे धीरे वो सब इस बात पर ध्यान देने लगे की कैसे खेल में जीता जाए। बच्चों में आपस में एक चर्चा होने लगी। कुछ हफ़्तों तक बच्चों ने आपस में लड़का लड़की की बिनाह पर फ़र्क़ भी किया। जैसे की जब भी टीम बनाने की बारी आती तो लड़के एक साथ होने लगते। इसके लिए हमने लड़का लड़की दोनो को एक दूसरे के आमने सामने कप्तान बनाया। जब लड़कियों का खेल लड़कों से बेहतर दिखने लगा तो ये फ़र्क़ भी मिट गया। आज बच्चे आपस में खेलते है बात करते है। सबसे अहम पहलू है की वो एक दूसरे को नाम से पुकारते है। अभी गाली गलोच थोड़ा कम हो गया है और साथ ही मार पीट भी।


आगे क्या?

समानता में हमेशा किसी भी क़दम को लेकर उसके दूरगामी परिणामों पर चर्चा होती है। हम लोग ये देख रहे है की पाठ्यक्रम में खेलों के महत्व को इस धृष्टि से बढ़ाया जाए की उसका बच्चों के बीच में भेद भाव करने के जो कारण हो उनका निदान हो सके। छोटी उम्र से ही बच्चों में जात पात, धर्म, लिंग, पहनावा और संस्कृति के आधार पर भेद भाव ना करने के मूल्यों को खेलों के माध्यम से बढ़ावा दिया जाए। इसके प्रति स्कूल में पाठ्यक्रम, शिक्षकों, विध्यालय समितियों एवं कर्मचारियों के स्तर पर कार्य किया जाना चाहिए। समानता इस शेत्र में "स्कूल प्रोग्राम डिवेलप्मेंट" के प्रति अग्रसर है। आने वाले सालों में हम इसका पूरा खाखा तय्यार करने का प्रयास करेंगे।


भारत में समता/समानता का अधिकार

भारतीय संविधान के अनुसार, भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकारों के रूप में समता/समानता का अधिकार (अनु. १४ से १८ तक) प्राप्त है जो न्यायालय में वाद योग्य है।

[2] ये अधिकार हैं-

अनुच्छेद १४= विधि के समक्ष समानता।

अनुच्छेद १५= धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।

अनुच्छेद15(4)= सामाजिक एवम् शैक्षिक दषि्ट से पिछडे वर्गो के लिए उपबन्ध।

अनुच्छेद १६= लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।

अनुच्छेद १७= छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त कर दिया गया है।

अनुच्धेद १८= उपाधियों का अन्त कर दिया गया है। (स्रोत - विकिपीडिया )


लेखक - प्रशांत (समानता फ़ाउंडेशन)

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