top of page
Writer's pictureSamanta

शिक्षा और शिक्षा प्रणाली




आज की शिक्षा से हम क्या समझते है?

हर रोज़ विद्यालय में जाकर शिक्षकों ने जितना बोला, उसे दिमाग का उपयोग किए बिना ही रट लेना शिक्षा है?

या दुनिया के सभी छात्रों से आगे निकल जाने वाली कोशिशों में खुद को ही भूल जाने की भागदौड़ को शिक्षा कहेंगे?

क्या हम उन्हें शिक्षित कहेंगे जो स्वाभाविक सी बातों पर भी मरने-मारने की धमकी देते हैं, या फिर शिक्षा वह है जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर आत्महत्या की सोच की तरफ ले जाती है?


मनुष्य एक प्राणी मात्र ही तो है, परंतु फिर भी पृथ्वी पर उसका महत्व इसलिए है क्योंकि वह सोच सकता है - उस सोच को शब्दों के रूप में प्रकट कर सकता है - और वही सोच का आदान प्रदान करके अपने आप में परिवर्तन भी ला सकता है - कुछ नया कर सकता है। शिक्षा का सरल अर्थ ही तो सोचने, बोलने और बदलाव लाने की प्रक्रिया है जो संसार को उन्नति की तरफ ले जाए।


तो क्या यह सरल मतलब आज की शिक्षा प्रणाली समझती है?

भारत ने आज तक कई प्रकार की शिक्षा प्रणालियाँ देखी है। उनमें से सबसे पुरानी है वर्ण व्यवस्था आधारित शिक्षा प्रणाली। यह शिक्षा प्रणाली के चलते समाज स्थिर हुआ। बच्चे के जन्म के साथ ही उसका वर्ण निश्चित हो जाता और वर्ण से शिक्षा जुड़ी हुई थी। मतलब कि उसकी शिक्षा भी उसके जन्म के साथ ही तय हो जाती। कैसी शिक्षा लेनी है और कब लेनी है यह प्रश्न ही नहीं था।


इसके बाद दर्शन आधारित शिक्षा प्रणालियाँ सामने आई। उन्होंने अपने विचार के प्रचार के लिए शिक्षा का उपयोग किया और उपासकों का एक वर्ग उभरकर सामने आया। यह नवीनतम विचारधाराओं ने वर्ण बंधन की दासता को तोड़ा। परंतु बदलाव ही संसार का नियम है और इस नियम के तहत यह विचार आधारित शिक्षा प्रणाली में से भी धीरे-धीरे विचार चले गए और मात्र शिक्षा प्रणाली बच गई। यह बात कुछ १०-१२ सालों की नहीं है, यह सब होने में संभवतः ३००० से भी ज्यादा वर्षों का समय लगा।


इसके बाद एक ऐसी शिक्षा प्रणाली ने जन्म लिया जिसकी तुलना हम किसी फ़ैक्टरी से कर सकते हैं और जिस में हम सब आज शिक्षा भी ले रहे हैं। इस प्रणाली ने मानव को एक संसाधन बना दिया। और जो खुद एक संसाधन है वह दूसरों को भी संसाधन की नजर से ही देखता चला गया।


यह सभी बातें शिक्षा प्रणाली में आए बदलाव को सूचित करती हैं। शिक्षा में आए इस परिवर्तन ने समाज, सामाजिक मूल्यों एवं पर्यावरण पर अपना गहरा प्रभाव डाला। मानव जब खुद एक संसाधन बन गया तो उसने पर्यावरण को भी संसाधन के स्वरूप में स्वीकार कर उसका उपयोग ना करते हुए उपभोग करने निकल पड़ा। उपभोग की इस यात्रा में हमने काफी लंबा रास्ता तय कर लिया है। इसीलिए कई शहरों की शिक्षा में प्राणवायु देने वाले पेड़ो का महत्व सिर्फ किताबों और पर्यावरण दिन मनाने तक सीमित रह जाता है। लेकिन आज भी ऐसे कई स्थान है जहां बड़ी संख्या में लोग इस पर्यावरण के साथ जंगलों में रहते हैं। जो उनका ना तो उपयोग करते है और ना ही उपभोग, वे उन्हें अपने जीवन का एक हिस्सा मानते हैं। भले ही आज की शिक्षा प्रणाली उन तक पहुंचने में और अक्षर ज्ञान देने में असफल रही हो परंतु वे पर्यावरण को बखूबी हमसे ज्यादा जानते हैं। उनके जीवन में किसी और से आगे निकल जाने की भागदौड़ नहीं है, ना ही जीवन में कुछ नहीं किया इस सोच की हताशा। क्योंकि उनके सामने हर साल सूखा हो जाने वाला जंगल फिर से हरा भरा हो जाता है, वही उन्हें जीवन अमूल्य शिक्षा देता है।


भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत एक बहुत बड़ा राष्ट्र है। पानी से भरे जंगल से लेकर रेत से भरा रेगिस्तान, पर्वत की आड़ी टेढ़ी चट्टानों से लेकर विशाल समुद्र तट को हमारा भारत समाता है। इतना वैविध्यपूर्ण पर्यावरण उस इलाके में रहते इंसानों की आर्थिक स्थिति एवं सोचने के दृष्टिकोण में बदलाव लाता है। शिक्षा प्रणाली चाहे एक ही हो परंतु दृष्टिकोण अलग होने से शिक्षा दृष्टिकोण एवं पर्यावरण के साथ जुड़ी होनी चाहिए।


यह मुद्दे आज की शिक्षा प्रणाली को प्रभावित कर रहे हैं। परंतु शिक्षा प्रणाली अब तक इन मुद्दों से प्रभावित नहीं है। विश्व में आई हुई और आने वाली बड़ी चुनौतियों का डटकर सामना करने की शिक्षा भी आज की शिक्षा प्रणाली नहीं दे पा रही। शिक्षा के वर्तमान मूल्य में परिवर्तन लाने का समय अब आ गया है। दिखावे मात्र के प्रयत्न तो काफी किए जा रहे है, अब ज़रूरत है की छोटी छोटी कोशिशें जो हमारे देश में जगह जगह हो रही है उनका समर्थन किया जाए। आने वाले समय में उनको एक जुट कर एक व्यवस्था परिवर्तन की जाए।


लेखिका - बंसरी रबाडिया

(समानता के साथ काम करते हुए बंसरी अपना योगदान बच्चों के लिए उनके आस पास के अनुभवों से सम्बंधित कार्य तय्यार करने में सहायता कर रही है।)

3,017 views0 comments

Comments


bottom of page